बुधिजिवियो के समूहों को कई बार आध्यात्म पर चर्चा करते और इसके स्वरुप की व्याख्या करते बहुत सुना है, सब की अपनी अपनी परिभाषा है। हर परिभाषा सुनने में अलग और एक ही वृक्ष के फल प्रतीत होती है जिसमे आध्यात्म को सिर्फ एक जड़ (कठोर) और स्थिर रूप में ही वर्णन किया है। हर परिभाषा सुन्दर और कर्ण प्रिय है फिर भी कही न कही कुछ कमी है, जैसे फल हो पर रस नहीं, सब उस फल के बहारी रूप को ही देख कर फल का गुडगान कर रहे हो और वास्तविक रस कही हो ही नहीं ।
आध्यात्म को कभी पूजाघरो, कभी साधू सेवा, कभी पूर्वज आदेशो और कभी मात-पितृ सेवा की परिधियो में ही सिमित देखा है, हमेशा यह परिधिया कड़ोर लगी और मन हमेशा रस की उपस्तिति की खोज में ही रहा।
वास्तविक धर्म तो एक वृक्ष है। जिसकी प्राण वायु तथा जड़ दया है। नियम, कानून, कर्म, कांड सब उसकी शाखाये और उन पर लगने वाले लता, पता, फूल है। जो शांति और प्रेम के फल का सृजन कर रहा है।
जिन्होंने सिर्फ नियम, कानून, कर्म, कांड को प्राथमिकता थी वह कभी वास्तविक स्वरुप को नहीं जान सकते, मूल जड़ो (दया) का अनदेखापन उन्हें शांति रूपी फल का कभी पान नहीं करने देता। समय के अनंत काल तक ऐसे अज्ञानी बस नियम, कानून, कर्म, कांड के चक्र में ही घूमते रहते है। जो परम सत्य दया को जान और मान लेते है वह परम समाधी को प्राप्त होते है। जिसने दया के साथ क्षमा को भी अपना लिया वो तो एकाकी हो परम आनंदमय हो गया।
आध्यात्म को कभी पूजाघरो, कभी साधू सेवा, कभी पूर्वज आदेशो और कभी मात-पितृ सेवा की परिधियो में ही सिमित देखा है, हमेशा यह परिधिया कड़ोर लगी और मन हमेशा रस की उपस्तिति की खोज में ही रहा।
वास्तविक धर्म तो एक वृक्ष है। जिसकी प्राण वायु तथा जड़ दया है। नियम, कानून, कर्म, कांड सब उसकी शाखाये और उन पर लगने वाले लता, पता, फूल है। जो शांति और प्रेम के फल का सृजन कर रहा है।
जिन्होंने सिर्फ नियम, कानून, कर्म, कांड को प्राथमिकता थी वह कभी वास्तविक स्वरुप को नहीं जान सकते, मूल जड़ो (दया) का अनदेखापन उन्हें शांति रूपी फल का कभी पान नहीं करने देता। समय के अनंत काल तक ऐसे अज्ञानी बस नियम, कानून, कर्म, कांड के चक्र में ही घूमते रहते है। जो परम सत्य दया को जान और मान लेते है वह परम समाधी को प्राप्त होते है। जिसने दया के साथ क्षमा को भी अपना लिया वो तो एकाकी हो परम आनंदमय हो गया।
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