Thursday, October 23, 2014

आध्यात्म.. प्रश्न या उत्तर

बुधिजिवियो के समूहों को कई बार आध्यात्म पर चर्चा करते और इसके स्वरुप की व्याख्या करते बहुत सुना है, सब की अपनी अपनी परिभाषा हैहर परिभाषा सुनने में अलग और एक ही वृक्ष के फल प्रतीत होती है जिसमे आध्यात्म को सिर्फ एक जड़ (कठोर) और स्थिर रूप में ही वर्णन किया हैहर परिभाषा सुन्दर और कर्ण प्रिय है फिर भी कही कही कुछ कमी है, जैसे फल हो पर रस नहीं, सब उस फल के बहारी रूप को ही देख कर फल का गुडगान कर रहे हो और वास्तविक रस कही हो ही नहीं

आध्यात्म को कभी पूजाघरो, कभी साधू सेवा, कभी पूर्वज आदेशो और कभी मात-पितृ सेवा की परिधियो में ही सिमित देखा है, हमेशा यह परिधिया कड़ोर लगी और मन हमेशा रस की उपस्तिति की खोज में ही रहा।

वास्तविक धर्म तो एक वृक्ष है।  जिसकी प्राण वायु तथा जड़ दया है। नियम, कानून, कर्म, कांड सब उसकी शाखाये और  उन पर लगने वाले लता, पता, फूल है। जो शांति  और प्रेम के फल का सृजन कर रहा है।

जिन्होंने सिर्फ नियम, कानून, कर्म, कांड को प्राथमिकता थी वह कभी वास्तविक स्वरुप को नहीं जान सकते, मूल जड़ो (दया) का अनदेखापन उन्हें शांति रूपी फल का कभी पान नहीं करने देता। समय के अनंत काल तक ऐसे अज्ञानी बस नियम, कानून, कर्म, कांड के चक्र में ही घूमते रहते है।  जो परम सत्य दया को जान और मान लेते है वह परम समाधी को प्राप्त होते है। जिसने दया के साथ क्षमा को भी अपना लिया वो तो एकाकी हो परम आनंदमय हो गया।



असफल... सफलता, तलाश जारी है

नन्ही नन्ही उंगलियों में आज उसने बड़े बड़े नोट पहली बार थामे है, मन बड़ा ही उत्साहित है नई नई जगह और आज से घंटे गद्धी पर बैठना है, साथ में असमंजस में है की इतने बड़े बड़े हिसाब कैसे करे...पर जो बचपन से ही भास्कर को घूरता बड़ा हुआ है उसे यह चुनोती कहा हताश करती ..एक एक कर के नोट गिने ...फ़िर हिसाब लगाया ..फ़िर लगाया ..अरे एक बार और लगाया ..और बचे रूपये बापस दे दिए...अरे यह क्या अभी भी हिसाब लगा रहा है ... चलो अब संतुष्ट..और चहरे पर पूर्ण विजयी मुश्कान गई ..अरे हो क्यों आज पहली बार सफलता का स्वाद चखा है, सामाजिक सफलता? ...हा सामाजिक सफलता पहली बार कोई ऐसा काम किया है जिसे समाज कमाना कहता है ..तो यह सफलता से कम नही है, इसका आनंद चंद्र पर प्रथम चरण रखने से कम तो होगाअब यह रोज की बात हो गई है ..वही हिसाब ..वही नोट ..और वही जगह ..काम वही है पर अब वैसा उत्साह और आनंद नही जैसा पहली बार आया था ..वोह सफलता प्राप्त करने की चमक भी नही
शायद सफलता को ग़लत परिभासा दे दी थी ..वोह सफलता नही थी..चलो तलाश जारी है।जब मिले तो साक्षात्कर अवस्य करा देना।  

उन में भी क्या दम थे..... जब मैं कम, सब हम थे।

उन में भी क्या दम थे, जब जेब में पैसे कम और दिन आनंद वन थे। 
साल की एक पोशाक , उसके हिस्से भी कभी कम थे। 
भरा है बक्सा, तब बल्ब कुछ मुठ्ठी में बंद थे। 
जोड़ तोड़ के बनती झालर, आँखे बड़ी और पुलकित तन थे। 
हल्ला गुल्ला मौज और मस्ती, की थी बड़ी कीमत सस्ती। 
उन में भी क्या दम थे, जब जेब में पैसे कम और दिन आनंद वन थे।

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दरवाजे पर थे बैठा करते, घंटे घंटे फ़ोन थे करते। 
दीदी कितनी देर लगेगी, कौन सी बस से तू निकलेगी।
देर से बैठे आस लगाये, तेरे घेवर के हम ललचाये। 
आते थे संग सब छोटे मोटे... भोले भाले थोड़े खोटे। 
उन में भी क्या दम थे, जब जेब में पैसे कम और दिन आनंद वन थे। 

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उन में भी क्या दम थे..... जब मैं कम, सब हम थे।